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Friday, 31 March 2017

कृषि की समझ - भाग - ३

                                 फसल सुरछा
फसल को बोने से लेकर कटाई और भण्डारण तक विभिन्न प्रकार के खतरे मौजूद होते हैं जिनसे फसल और उसके उत्पाद की सुरछा आवश्यक है। अन्यथा खाद्यान उत्त्पादन कम हो सकता है और भूख तथा कुपोषण की समस्या उत्पन्न हो सकती है।

सभ्यता के विकास में फसलों को किसी भी खतरे से बचाने के लिए, विभिन्न सभ्यताओं में विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान किया जाता था। उस समय मनुष्य ये समझता था की फसलों में बीमारियां ईश्वर के द्वारा दी जाने वाली सजा है, जिसके लिए अलग अलग सभ्यतों में अलग अलग तरह के अनुष्ठान किये जाते थे, जिससे देवता प्रसन्न हो जाएं और फसलों में बीमारियां न लगें। इसका एक उदहारण है रोबिगलिा त्यौहार जो की रोम के लोगों द्वारा मनाया जाता था। इसका उद्देश्य यह था कि गेहूं की फसल पर रस्ट की बीमारी न आये।
 फसलों और पेड़ पौधों में कीड़े भी लगते थे और फसल को नुक्सान पहुँचता था। कुछ कीटों का ऐसा प्रकोप होता था की पूरी की पूरी एक बहुत बड़े इलाके की नस्ट हो जाती थी। जैसे locust वो पूरे के पूरे झन्ड में आते थे और फसलों को चट करते हुए निकल जाते थे। ऐसे में लोग फसलों की सुरछा के लिए अनेक तरह के प्राक्रतिक उपाय अपनाते थे, जिसमे नीम का तेल, अरंडी का तेल, गो मूत्र इत्यादी। चुकि इनकी दुर्गन्ध से कीड़े फसलों से दूर रहते थे इसलिए इनका घोल बनाकर पौधों पर छिड़क दिया जाता था।
पर आज विज्ञानं और तकनिकी के विकास के युग में विभिन्न प्रकार के रासायनिक कीट नाशक, फफूंद नाशक, जीवाणु नाशक इत्यादि उपलब्ध है जिससे अब फसलों की बिमारियों और कीड़ों से सुरछा बहुत आसान हो गयी है।

पुराने समय में चुकि फसलों की किस्मे प्राकृतिक रूप से पायी जाने वाली उपलब्ध किस्मे ही होती थी तथा फसलें भी बहुत सघन रूप में नहीं होती थी। इस कारण से फसलों में बीमारियाँ या कीड़ों का प्रकोप आज की तुलना में कम होता था। जैसे जैसे फसलों का छेत्रफल बढ़ता गया और विभिन्न उन्नत किस्म की फसलें विकसित की गयीं तब से कीटों और बिमारियों का प्रकोप बढ़ता चला गया।

फसलों को सबसे ज्यादा नुक्सान खरपतवार के द्वारा होता है उसके बाद कीटों के द्वारा सबसे ज्यादा नुक्सान किया जाता है तथा इसके बाद में बीमारियों द्वारा नुकसान होता है 
खरपतवार (Weed): 
खरपतवार, उन गैर जरूरी पौधों को कहा जाता है जो हमारी उगाई जाने वाली फसलों में उग आते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि हम गेहू की फसल उगाई है और उसमे गेहूं के अलावा कोई भी दूसरा पौधा उगा है, जिसको हमने नहीं बोया है या जिसकी हमें कोई आवश्यकता नहीं है, तो वह खरपतवार है। चुकि ये भी पौधे होते है अतः इन्हें भी सामान्य पौधों की तरह ही जमीन, पोषक तत्व, पानी, सूर्य की रौशनी, हवा इत्यादि चाहिए होती है। अतः ये हमारे द्वारा उगाये जाने वाले फसलों के पौधों से इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए  प्रतियोगिता करते है। जिससे इनकी उपस्थिति से मुख्य फसल का उत्त्पदन कम हो जाता है। यदि खरपतवारों की संख्या फसल में बहुत अधिक हो जाती है तो मुख्य फसल का उत्त्पादन नब्बे प्रतिशत से भी अधिक तक कम हो सकता है। अतः इनकी रोकथाम बहुत आवश्यक हो जाती है।
हर फसल में (कुछ सामान्य खर पतवारों को छोड़ कर) अलग अलग तरह के खरपतवार उत्त्पन्न होते हैं। अतः उन सबकी र्क्थाम के तरीके भी अलग अलग तरह से होते हैं। सामन्यतया खर पतवारों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। पहला सकरी पत्ती वाले और दूसरा चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार।

जिन दवाओं या पदार्थों का इस्तेमाल खरपतवारों को नष्ट करने के लिए किया जाता है उन्हें खरपतवारनाशी (Herbicide) कहा जाता है। खरपतवार नाशी भी कई प्रकार के होते हैं। अलग अलग खरपतवारों के नियंत्रण के लिए अलग अलग प्रकार के खरपतवारनाशी प्रयोग किये जाते हैं। जो खरपतवार नाशी किसी खास खरपतवार के नियंत्रण के लिए इस्तेमाल किया जात है वो केवल उसी खरपतवार को नष्ट करता है तथा फसल को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाता है। परन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका इस्तेमाल सभी प्रकार के पौधों को नष्ट करने के लिए किया जाता है।

सामान्यतः खरपतवारों को मजदूर लगा कर या किसान खुद भी हाथ से ही उखाड़ कर नष्ट कर सकता है। परन्तु आज के समय में विभिन्न किस्म की सस्ती खरपतवारनाशी (Herbicide) बाजार में उपलब्ध हैं और चुकि मजदूर का उपयोग महगा है तथा खरपतवारों को नष्ट करने में समय भी ज्यादा लगता है अतः दवाओं का इस्तेमाल किसान के लिए ज्यादा आसान और सस्ता होता है।

कीट नियंत्रण : कीटों का प्रकोप बीज से लेकर भण्डारण तक सभी अवस्थाओं में पाया जाता है। कीट, फसल बोये जाने वाले बीजों को सीधे तौर पर खाकर उसे उगने से भी रोक सकते हैं। खड़ी फसल के विभिन्न भागों को खाकर नष्ट करके नुक्सान पहुंचा सकते हैं तथा भण्डारण के समय भी कीट अनाजों को खाकर उन्हें नुक्सान पहुँचाते हैं। अतः कीटों का नियंत्रण पौधे की लगभग सभी अवस्था में किया जाता है। बीजों के बोये समय बीज शोधन तथा खेत, जमीन में कीटनाशक का प्रयोग करके बीजों की रच्छा की जाती है। फसल उगने के बाद भी विभिन्न उसकी अवस्थाओं में अनेक प्रकार के कीड़ों का प्रकोप होने की प्रबल सम्भावना होती है।अतः उन्हें नियंत्रित करने हेतु विभिन्न प्रकार के कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल करना पड़ता है।

कीड़े मकौडों (Insect Pest) के प्रकोप से बचने के लिए जिन रासायनिक पदार्थों या दवाओं का उपयोग प्रयोग करते हैं उसे कीटनाशी (Insecticide) कहा जाता है।
फसलों में बीमारियाँ :
जिस प्रकार से मनुष्य की बीमारियों से पुराने ज़माने में गाँव के गाँव ख़त्म हो जाते थे (हैजा , प्लेग , इत्यादि) ठीक उसी प्रकार से यदि बीमारियाँ भी फसलों में लग जाती थी तो पूरी फसल की फसल, जिले से लेकर देश तक, सारी फसल बर्बाद हो जाती थी और लोग भूखों मर जाते थे। सन 1845 में आयर्रर्लैंड में आलू में पछेती झुलसा (Late blight of potato) नामक बीमारी से आलू की फसल बर्बाद बर्बाद हो गयी थी, और इससे भोजन का अकाल पड गया था और भूख से लगभग 10 लाख लोगों की मौत हो गयी थी। सन 1943 में बंगाल में धान की फसल में ब्राउन लीफ स्पॉट नामक बीमारी आने से धान की फसल नष्ट हो गयी थी जिसकी वजह से लगभग 25 लाख लोगों की भूख से मौत हो गयी थी। ये दोनों बिमारियां विभिन्न कवकों (Fungus) के वजह से हुई थी परन्तु उस समय फसलों की बीमारियों का ज्यादा ज्ञान न होने और बीमारियों के लिए अच्छी दवाओं के न होने की वजह से उनकी रोक थाम भी नहीं हो पाती थी।
विभिन्न प्रकार की फसलों पर विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ भी आती हैं, जिनके कारण फसलें लगभग पूरी तरह से नष्ट तक हो जाती है। इन बीमारियों के बिभिन्न कारण होते है। पौधों की बीमारियों को प्रमुखता से दो भागों में बाँट सकते हैं। एक तो ऐसी बीमारियाँ जोकि वातावरण के कारण होती है और दूसरी जिनका कारण सूछम जीव होते हैं। पोषक तत्वों की कमी से भी बहुत सारी बीमारियाँ होती है जैसे खैरा बीमारी, जिंक नामक पोषक तत्व की कमी से होता है। इसी प्रकार से वातावरण में ज्याद तापमान, कम तापमान, ऑक्सीजन की कमी इत्यादि से भी पौधों और फसलों में विभिन्न किस्म की बीमारियाँ होती हैं। कुछ तत्वों की ज्यादा मात्र से भी कई प्रकार की बीमारिया उत्त्पन्न होती हैं।

सूछम जीवों द्वारा भी पौधों और फसलों में विभिन्न प्रकार बीमारियाँ होती हैं। फसलों में सूछम होनी वाली बिमारियों में ज्यादातर बीमारियाँ फफूंद( Fungus) के कारण होती है, कुछ बीमारियाँ जीवाणु (Bacteria) से होती है, कुछ सूत्रकृमि (nematode) से, कुछ विषाणु (Virus) से और कुछ परजीवी पौधों (Parasitic higher plants i.e. Cuscuta) से भी होती हैं। इसके अलावा कुछ अन्य प्रकार के जीव भी पौधों में बीमारी पैदा करने के कारक होते हैं लेकिन उनका महत्त्व ऊपर जिक्र किये गए कारकों से कम है। 

इन सभी सूच्म जीवों द्वारा होने वाली बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए जिन दवाओं या पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है उन्हें क्रमशः फफूंदनाशी (Fungicide), जीवाणुनाशी (Bactericide), सूत्रक्रिमिनाशी (Nematicide) इत्यादि कहते है। 
अभी तक विषाणुओं को नियंत्रित करने वाली किसी दवा या पदार्थ का निर्माण नहीं किया जा सका है। इसका मुख्य कारण यह है कि विषाणुओं में केवल प्रोटीन और नुक्ल्लिक अम्ल ही पाया जाता है, जो कि सभी जीव जंतुओं में भी पाया जाता है। विषाणु के रोगों के नियंत्रण का एक मात्र उपाय है कि किसान उस फसल की ऐसी किस्म उगाये जो कि विषाणुरोधी किस्म हो।

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कृषि की समझ - भाग -२

                              फसलों में पोषण : 

 पौधे अथवा फसल अपने जीवन यापन और सामान्य वृद्धि के लिए जमीन से ही पोषण प्राप्त करते हैं। पौधों द्वारा लगातार जमीन से पोषक तत्वों को लेने की वजह से जमीन में पोषक तत्वों की कमी आ जाती है। चुकि कई वर्षों से एक ही जमीन हर वर्ष कई फसलें उगाने से जमीन में पौधों के पोषक तत्वों में कमी आ गयी है। पुराने समय में पशुओं की गोबर खाद से ये पोषक तत्व पूरे किये जाते थे। पुराने समय में पशुओं की संख्या बहुत ज्यादा थी और पर्याप्त मात्र में गोबर उपलब्ध था, परन्तु समय बढ़ने के साथ जब खेती का छेत्रफल बढने लगा तब पशुओं के गोबर की की मात्रा, बढे हुए कृषि छेत्र्फल के लिए पर्याप्त नहीं था। अब पोषक तत्वों की कमी केवल गोबर की खाद या हरी खाद से पूरी नहीं की जा सकती थी। अतः फसलों की पैदावार भी कम होने लगी। नयी उन्नत किस्म की (ज्यादा पैदावार देने वाली) फसलों के विकास से ज्यादा मात्रा में पोषण की आवश्यता हुई। चुकि फसलों की उन्नत किस्म में पैदावार हेतु अधिक मात्र में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, अतः बाहर से पोषण की आवश्यकता होती है।  

लगभग 1990 तक रासायनिक खादों का अविष्कार और प्रयोग शुरू हुआ। जमीन में पोषक तत्वों को बनाये रखने के लिए इन रासायनिक खादों को बाहर से खेत में डाला जाने लगा। रासायनिक पोषक तत्वों के श्रोत को chemical Fertilizer या रासायनिक उर्वरक कहते हैं जिसे किसान बाहर से खेत में प्रयोग करता है। जब से उन्नत किस्म के फसलों का प्रयोग शुरू हुआ है तब से खेती में पोषण की आवश्यकता बढ़ गयी है, इसलिए रासायनिक खादों पर निर्भरता भी बढ़ गयी है। आज बिना रासायनिक उर्वरकों के हम खेती को सोच भी नहीं सकते।

                                    fig: Urea fertilizer (nitrogen supplement to plants) 


                         Fig : DAP fertilizer (Phosphorus and Nitrogen supplement to plants)
चुकि पौधे अपना पोषण, तत्वों के रूप में प्राप्त करते हैं, जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाशियम, कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, मैग्नीज, आयरन इत्यादि. इसीप्रकार से उर्वरक भी, उन पोषक तत्वों को प्रदान करने वाले concentrated उत्पाद होते हैं जिन्हें खेतों में या पौधों पर डालने से पौधों को पोषण प्राप्त हो जाता है।इस प्रकार पौधे अपना पोषण प्राप्त कर अपनी सामान्य बढवार करते रहते हैं। कुछ उर्वरको से एक ही किस्म के पोषक तत्व प्राप्त होता है और कुछ उर्वरको से कई पोषक तत्व एक साथ में प्राप्त करते हैं।

जो उर्वरक प्राक्रतिक तरीके से तैयार किया जाता है उसे जैविक खाद कहते हैंजैसे कम्पोस्ट। पशुओं के गोबर, पेड़ पौधों के अवशेष इत्यादि को सड़ाकर कम्पोस्ट तैयार किया जाता है। इसके अलावा भी बहुत अन्य भी विभिन्न प्रकार की जैविक खाद तैयार और इस्तेमाल की जाती है। जैव उर्वरक का भी इस्तेमाल खेती में किया जाता है। जैव उर्वरक वो जीवित सुछम जीव होते हैं जिनके इस्तेमाल से फसलों को पोषण प्राप्त होता है। जैसे अजोल्ला, एजोटोबक्टर इत्यादि।

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Friday, 10 March 2017

जलवायु परिवर्तन का कृषि रक्षा से सम्बन्ध @ recent cases

   जलवायु परिवर्तन का कृषि रक्षा से सम्बन्ध @ recent cases 
 वातावरण में हो रहे परिवर्तन की वजह से मानव जीवन पर इसके दुष्परिणाम तथा भयावहता की समझ  में बड़ी बाधा यह है कि बहुत से लोग वातावरण का मनुष्य, तथा फसलों में होने वाली बीमारियों के सम्बन्ध को ठीक से समझ नहीं पाते सामान्यतः हम यह समझते हैं कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव लम्बे समय पर दिखाई पड़ेगा, इसके लिए तुरंत चिंता करने की आवश्यकता नहीं है परन्तु यदि हम अभी जल्दी में कुछ कृषि पर पड़े दुष्प्रभाव का संज्ञान ले चाहूँगा तो पता चले गा कि इसका सीधा सम्बन्ध वातावरण और जलवायु परिवर्तन से है

धान की फसल में पत्ती लपेटक कीट का प्रकोप : यह बात पिछले 2015 (खरीफ या बरसात के मौसम की फसल सीजन) की है, जिसमे उत्तर भारत के बहुत बड़े छेत्र में दो फसलें प्रमुख तौर पर प्रभावित हुई थी जिसमे धान की फसल और कपास की फसल शामिल थीं इन फसलों पर कुछ कीटों ने फसल उत्पादन पर बहुत बुरा डाला, धान की फसल में बहुत ही सामन्य / कमजोर कीड़ा (week insect pest) जिसका नाम पत्ती लपेटक (leaf folder) कीट है चुकि यह कीड़ा/कीट बहुत ही नाजुक होता है अतः इसका नियंत्रण बहुत ही आसन होता है इसके नियंत्रण की कई विधियाँ है बिना कीटनाशकों के भी इनका नियंत्रण किया जा सकता है जैसे कि यदि इसका प्रकोप हो तो यदि मिटटी के तेल में डुबोई हुई रस्सी के साथ फसल पर चला दिया जाय तो ये कीड़े जमीन पर गिर जाते हैं और ख़त्म हो जाते हैं यदि किसी बहुत कम शक्ति के कीटनाशक का भी स्प्रे कर दिया जाय तो यह कीड़े आसानी से नियंत्रित हो जाते हैं यह कीट धान की सुगन्धित प्रजाति की फसल में अक्सर आता है 
इसका प्रकोप धान की रोपाइ के 20 -25 दिनों के अन्दर हो जाता है इस कीट के लार्वा (सुंडी-Larva) का नुकसान वाला अवस्था (larva) 20-30 दिनों का होता है इस कीट को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता क्यूंकि इसका नियंत्रण आसान होता है परन्तु सन 2015 के खरीफ सीजन में इस कीट का प्रकोप इतना ज्यादा भयंकर हो गया था, जिस प्रकार से कि इस वर्ष 2016 में, कई शहरों में डेंगू की समस्या हो गयी थी 2015 में धान के किसानो को, इस कीट के नियंत्रण के लिए तीन से चार बार अनेक प्रकार के कीटनाशकों का स्प्रे करना पड़ा, फिर भी इसका नियंत्रण नहीं हो पाया और अंत में फसल की पैदावार प्रभावित हुई चुकि इस कीट का नुक्सान करने की अवधि केवल 20-30 दिनों तक का ही होता है, अतः यह समय निकलने के बाद यह समस्या स्वतः ही समाप्त हो गयी परन्तु किसी कीट नाशकों द्वारा इसका नहीं हो पाया यह समस्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भयंकर थी परन्तु जहाँ भी धान की सुगन्धित प्रजाति उगाई जाती हैइसका प्रभाव प्रभाव पड़ा जो कि लगभग पूरे उत्तर भारत में था। परन्तु चुकि इसका प्रभाव कुछ ही समय के बाद ख़त्म हो जाता है और इसके द्वारा पैदावार बिलकुल ही शून्य नहीं होती अतः सरकारी स्तर से इसको गंभीरता से नहीं लिया गया।
कपास की फसल में रस चूसक कीटों का प्रकोप : एक ऐसी ही घटना उसी खरीफ सीजन में में कपास की फसल में देखने को मिली जिसके मुख्य प्रभावित इलाके पंजाब और हरियाणा के वो छेत्र थे जहाँ पर कपास की फसल उगाई जाती है वहां पर कपास की फसल में रस चूसक कीटों (sucking pest) का प्रकोप इतना ज्यादा भयावह हो गया कि किसानो को अपनी पूरी की पूरी खड़ी फसल को खेत ही में नष्ट कर देना पड़ा किसानो ने खड़ी फसल को खेत में ही जोत दिया क्यूंकि पैदावार लभग शून्य ही हो गयी थी इसके लिए पंजाब और हरयाणा सरकार ने किसानो को मुवावजा दिया
कपास की फसल में इस घटना से सरकारी तंत्र को संदेह हुआ, कि शायद यह समस्या इसलिए हुई कि विभिन्न कंपनियों ने घटिया कीटनाशकों को बाजार में दिया है, जिसकी वजह से ये कीट नियंत्रित नहीं हो रहे हैं कई कंपनियों ने डर के मारे अपने कई कीटनाशकों को बाजार से वापस कम्पनी में मंगवा लिया किसी भी जांच से बचने के लिए कई व्यापारियों ने भी अपने कीटनाशकों के स्टॉक को नहरों तक में फेक दिया यह कीट रस चूसक कीट था ये कीट फसल पर बहुत नकारात्मंक प्रभाव डालते हैं परन्तु इनसे कोई किसान खौफजदा नहीं होता क्यूंकि इनका भी नियंत्रण बहुत आसान होता है बाजार में विभिन्न कंपनियों की कई तरह की कीटनाशक उपलब्ध है, जिनके द्वारा इनका नियंत्रण बहुत आसन और इफेक्टिव होता है जब किसान को फसल में ये कीड़े दिखाई पड़ते हैं तो वो इसके लिए कोई भी कीटनाशक बाजार से लाकर स्प्रे कर देता है और यह कीट नियंत्रित हो जाता हैं
परन्तु इस बार इस कीट का नियंत्रण बाजार उपलब्ध किसी भी कीटनाशक से नहीं हो पाया किसानो ने कपास की फसल पर कम से कम दस से पंद्रह विभिन्न प्रकार के कीटनाशकों का स्प्रे किया, परन्तु नियंत्रण नहीं हुआ। यह रस चूसक कीट कई प्रकार की फसलों पर हमला करते हैं, परन्तु आसानी से नियंत्रित हो जाते हैं।  
ऐसा नहीं हो सकता की किसी एक सीजन में सभी कंपनियों ने सभी कीटनाशकों की नकली खेप तैयार कर दी हो, वो भी सभी तरह के टेक्नीकल / फार्मुलेशन की सभी कंपनिया एक साथ सारे कीटनाशक घटिया क्वालिटी / गुणवत्ता के नहीं बना सकती
अतः समस्या कुछ और थी किसी भी कीट या बीमारी के प्रकोप को आपने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है एक कमजोर पौधा (Susceptible host), बीमारी या नुक्सान पहुचने की छमता वाला कीट या बीमारी करने वाला एजेंट (virulent pathogen) और बीमारी या कीटों के लिए अनुकूल वातावरण  (congenial environment for the pest/pathogen) यदि ये तीनो चीजे मौजूद होती हैं तो ही बीमारी या कीटों का प्रकोप हो पाता है सन 2015 के खरीफ सीजन में चुकि बारिश बहुत कम हुई या जहाँ हुई भी वहां बहुत बिखरी हुए छेत्र में (scattered and uneven) हुई।  जिससे वातावरण सामान्य नहीं रहा, जैसा कि सामान्य खरीफ के सीजन में होता है इसके साथ ही कीटों के हमले या प्रकोप के लिए तीनो अवस्थाएं ठीक ठीक उपलब्ध हो गयीं फलतः कीड़े बहुत मजबूती के साथ फसल पर हमला किये चुकि वातावरण कीटों के लिए काफी अनुकूल था अतः वे बहुत शक्तिशाली हो गए, इससे उनके प्रजनन ( breeding) में भी बहुत तेजी आई कुछ कीट दवाइयों से मर भी गए, परन्तु उनकी संताने (progeny) ज्यादा थीअतः कीटनाशकों के असर ख़त्म होने के बाद जब कीट नुक्सान पहचानी वाली अवस्था में आये तो उन्हें पुनः प्रजनन का मौका मिल गया, और ये कीट बहुत मजबूती के साथ फसलों पर हमला किये
 ऐसी घटनाएं तभी देखने को मिलती है जब वातावरण में बड़ा बदलाव आता है यदि मौसम सामान्य होता है तो कीटों और बीमारियों का नियंत्रण आसानी से हो जाता है इसी तरह  एक बार हरयाणा के फतेहाबाद जिले में धान की सुगन्धित प्रजाति में bacterial leaf blight नामक बीमारी की वजह से किसानो ने खड़ी फसलों को खेत में ही नष्ट कर दिया था
 कहने का आशय यह है कि वातावरण में बदलाव से कोई भी कीट अथवा बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस (विषाणु) इत्यादि बहुत सक्रीय और ताकतवर हो जाते हैंउनकी प्रजनन छमता बढ़ जाती है और वो सामान्य परिस्थितों की तुलना में ज्यादा ताकतवर हो जाते हैं और उनको नुक्सान पहुँचाने वाले तत्व उनपर असरकारक नहीं होते।  
 वतावरण परिवर्तन की वजह से आज सुखा और बाढ़ बहुत सामान्य बात हो गयी है और इसके दुष्परिणाम से कृषि अछूता नहीं है। यदि समय रहते वातावरण परिवर्तन में हो रहे बदलाव को नहीं रोका गया तो भविष्य में गंभीर समस्याओं का सामना करना पड सकता है।
              
            

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