फसल सुरछा
फसल को बोने से लेकर कटाई और भण्डारण तक विभिन्न प्रकार के खतरे मौजूद होते
हैं जिनसे फसल और उसके उत्पाद की सुरछा आवश्यक है। अन्यथा खाद्यान उत्त्पादन कम हो
सकता है और भूख तथा कुपोषण की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
सभ्यता के विकास में फसलों को किसी भी खतरे से बचाने के लिए, विभिन्न सभ्यताओं में विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान किया जाता था। उस समय मनुष्य ये समझता था की फसलों में बीमारियां ईश्वर के द्वारा दी जाने वाली सजा है, जिसके लिए अलग अलग सभ्यतों में अलग अलग तरह के अनुष्ठान किये जाते थे, जिससे देवता प्रसन्न हो जाएं और फसलों में बीमारियां न लगें। इसका एक उदहारण है रोबिगलिा त्यौहार जो की रोम के लोगों द्वारा मनाया जाता था। इसका उद्देश्य यह था कि गेहूं की फसल पर रस्ट की बीमारी न आये।
सभ्यता के विकास में फसलों को किसी भी खतरे से बचाने के लिए, विभिन्न सभ्यताओं में विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान किया जाता था। उस समय मनुष्य ये समझता था की फसलों में बीमारियां ईश्वर के द्वारा दी जाने वाली सजा है, जिसके लिए अलग अलग सभ्यतों में अलग अलग तरह के अनुष्ठान किये जाते थे, जिससे देवता प्रसन्न हो जाएं और फसलों में बीमारियां न लगें। इसका एक उदहारण है रोबिगलिा त्यौहार जो की रोम के लोगों द्वारा मनाया जाता था। इसका उद्देश्य यह था कि गेहूं की फसल पर रस्ट की बीमारी न आये।
फसलों और पेड़ पौधों में कीड़े भी लगते थे और फसल
को नुक्सान पहुँचता था। कुछ कीटों का ऐसा प्रकोप होता था की पूरी की
पूरी एक बहुत बड़े इलाके की नस्ट हो जाती थी। जैसे locust
वो पूरे के पूरे
झन्ड में आते थे और फसलों को चट करते हुए निकल जाते थे। ऐसे में लोग फसलों की सुरछा के लिए अनेक तरह के
प्राक्रतिक उपाय अपनाते थे, जिसमे नीम का तेल, अरंडी का तेल, गो मूत्र इत्यादी। चुकि इनकी दुर्गन्ध से कीड़े फसलों से दूर रहते थे इसलिए
इनका घोल बनाकर पौधों पर छिड़क दिया जाता था।
पर आज विज्ञानं और
तकनिकी के विकास के युग में विभिन्न प्रकार के रासायनिक कीट नाशक, फफूंद नाशक, जीवाणु नाशक इत्यादि उपलब्ध है जिससे अब फसलों की बिमारियों और कीड़ों से सुरछा
बहुत आसान हो गयी है।
पुराने समय में चुकि फसलों की किस्मे प्राकृतिक रूप से पायी जाने वाली उपलब्ध किस्मे ही होती थी तथा फसलें भी बहुत सघन रूप में नहीं होती थी। इस कारण से फसलों में बीमारियाँ या कीड़ों का प्रकोप आज की तुलना में कम होता था। जैसे जैसे फसलों का छेत्रफल बढ़ता गया और विभिन्न उन्नत किस्म की फसलें विकसित की गयीं तब से कीटों और बिमारियों का प्रकोप बढ़ता चला गया।
फसलों को सबसे ज्यादा नुक्सान खरपतवार के द्वारा होता है। उसके बाद कीटों के द्वारा सबसे ज्यादा नुक्सान किया जाता है तथा इसके बाद में बीमारियों द्वारा नुकसान होता है।
खरपतवार (Weed):
पुराने समय में चुकि फसलों की किस्मे प्राकृतिक रूप से पायी जाने वाली उपलब्ध किस्मे ही होती थी तथा फसलें भी बहुत सघन रूप में नहीं होती थी। इस कारण से फसलों में बीमारियाँ या कीड़ों का प्रकोप आज की तुलना में कम होता था। जैसे जैसे फसलों का छेत्रफल बढ़ता गया और विभिन्न उन्नत किस्म की फसलें विकसित की गयीं तब से कीटों और बिमारियों का प्रकोप बढ़ता चला गया।
फसलों को सबसे ज्यादा नुक्सान खरपतवार के द्वारा होता है। उसके बाद कीटों के द्वारा सबसे ज्यादा नुक्सान किया जाता है तथा इसके बाद में बीमारियों द्वारा नुकसान होता है।
खरपतवार (Weed):
खरपतवार, उन गैर जरूरी पौधों को कहा जाता है जो हमारी
उगाई जाने वाली फसलों में उग आते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि हम गेहू की फसल उगाई है और उसमे गेहूं के अलावा कोई भी
दूसरा पौधा उगा है, जिसको हमने नहीं बोया है या जिसकी हमें कोई
आवश्यकता नहीं है, तो वह खरपतवार है। चुकि ये भी पौधे होते है अतः इन्हें भी सामान्य
पौधों की तरह ही जमीन, पोषक तत्व, पानी, सूर्य की रौशनी, हवा इत्यादि चाहिए होती है। अतः ये हमारे द्वारा उगाये जाने वाले फसलों के पौधों से इन सभी आवश्यकताओं की
पूर्ति के लिए प्रतियोगिता करते है। जिससे इनकी उपस्थिति से मुख्य फसल का
उत्त्पदन कम हो जाता है। यदि खरपतवारों की संख्या फसल में बहुत अधिक हो
जाती है तो मुख्य फसल का उत्त्पादन नब्बे प्रतिशत से भी अधिक तक कम हो सकता है। अतः इनकी रोकथाम बहुत आवश्यक हो जाती है।
हर फसल में (कुछ
सामान्य खर पतवारों को छोड़ कर) अलग अलग तरह के खरपतवार उत्त्पन्न होते हैं। अतः उन सबकी र्क्थाम के तरीके भी अलग अलग तरह
से होते हैं। सामन्यतया खर पतवारों को दो वर्गों में विभाजित
किया जाता है। पहला सकरी पत्ती वाले और दूसरा चौड़ी पत्ती वाले
खरपतवार।
जिन दवाओं या पदार्थों का इस्तेमाल खरपतवारों को नष्ट करने के लिए किया जाता है उन्हें खरपतवारनाशी (Herbicide) कहा जाता है। खरपतवार नाशी भी कई प्रकार के होते हैं। अलग अलग खरपतवारों के नियंत्रण के लिए अलग अलग प्रकार के खरपतवारनाशी प्रयोग किये जाते हैं। जो खरपतवार नाशी किसी खास खरपतवार के नियंत्रण के लिए इस्तेमाल किया जात है वो केवल उसी खरपतवार को नष्ट करता है तथा फसल को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाता है। परन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका इस्तेमाल सभी प्रकार के पौधों को नष्ट करने के लिए किया जाता है।
सामान्यतः खरपतवारों को मजदूर लगा कर या किसान खुद भी हाथ से ही उखाड़ कर नष्ट कर सकता है। परन्तु आज के समय में विभिन्न किस्म की सस्ती खरपतवारनाशी (Herbicide) बाजार में उपलब्ध हैं और चुकि मजदूर का उपयोग महगा है तथा खरपतवारों को नष्ट करने में समय भी ज्यादा लगता है अतः दवाओं का इस्तेमाल किसान के लिए ज्यादा आसान और सस्ता होता है।
कीट नियंत्रण : कीटों का प्रकोप बीज से लेकर भण्डारण तक सभी अवस्थाओं में पाया जाता है। कीट, फसल बोये जाने वाले बीजों को सीधे तौर पर खाकर उसे उगने से भी रोक सकते हैं। खड़ी फसल के विभिन्न भागों को खाकर नष्ट करके नुक्सान पहुंचा सकते हैं तथा भण्डारण के समय भी कीट अनाजों को खाकर उन्हें नुक्सान पहुँचाते हैं। अतः कीटों का नियंत्रण पौधे की लगभग सभी अवस्था में किया जाता है। बीजों के बोये समय बीज शोधन तथा खेत, जमीन में कीटनाशक का प्रयोग करके बीजों की रच्छा की जाती है। फसल उगने के बाद भी विभिन्न उसकी अवस्थाओं में अनेक प्रकार के कीड़ों का प्रकोप होने की प्रबल सम्भावना होती है।अतः उन्हें नियंत्रित करने हेतु विभिन्न प्रकार के कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल करना पड़ता है।
कीड़े मकौडों (Insect Pest) के प्रकोप से बचने के लिए जिन रासायनिक पदार्थों या दवाओं का उपयोग प्रयोग करते हैं उसे कीटनाशी (Insecticide) कहा जाता है।
जिन दवाओं या पदार्थों का इस्तेमाल खरपतवारों को नष्ट करने के लिए किया जाता है उन्हें खरपतवारनाशी (Herbicide) कहा जाता है। खरपतवार नाशी भी कई प्रकार के होते हैं। अलग अलग खरपतवारों के नियंत्रण के लिए अलग अलग प्रकार के खरपतवारनाशी प्रयोग किये जाते हैं। जो खरपतवार नाशी किसी खास खरपतवार के नियंत्रण के लिए इस्तेमाल किया जात है वो केवल उसी खरपतवार को नष्ट करता है तथा फसल को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाता है। परन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका इस्तेमाल सभी प्रकार के पौधों को नष्ट करने के लिए किया जाता है।
सामान्यतः खरपतवारों को मजदूर लगा कर या किसान खुद भी हाथ से ही उखाड़ कर नष्ट कर सकता है। परन्तु आज के समय में विभिन्न किस्म की सस्ती खरपतवारनाशी (Herbicide) बाजार में उपलब्ध हैं और चुकि मजदूर का उपयोग महगा है तथा खरपतवारों को नष्ट करने में समय भी ज्यादा लगता है अतः दवाओं का इस्तेमाल किसान के लिए ज्यादा आसान और सस्ता होता है।
कीट नियंत्रण : कीटों का प्रकोप बीज से लेकर भण्डारण तक सभी अवस्थाओं में पाया जाता है। कीट, फसल बोये जाने वाले बीजों को सीधे तौर पर खाकर उसे उगने से भी रोक सकते हैं। खड़ी फसल के विभिन्न भागों को खाकर नष्ट करके नुक्सान पहुंचा सकते हैं तथा भण्डारण के समय भी कीट अनाजों को खाकर उन्हें नुक्सान पहुँचाते हैं। अतः कीटों का नियंत्रण पौधे की लगभग सभी अवस्था में किया जाता है। बीजों के बोये समय बीज शोधन तथा खेत, जमीन में कीटनाशक का प्रयोग करके बीजों की रच्छा की जाती है। फसल उगने के बाद भी विभिन्न उसकी अवस्थाओं में अनेक प्रकार के कीड़ों का प्रकोप होने की प्रबल सम्भावना होती है।अतः उन्हें नियंत्रित करने हेतु विभिन्न प्रकार के कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल करना पड़ता है।
कीड़े मकौडों (Insect Pest) के प्रकोप से बचने के लिए जिन रासायनिक पदार्थों या दवाओं का उपयोग प्रयोग करते हैं उसे कीटनाशी (Insecticide) कहा जाता है।
फसलों में बीमारियाँ :
जिस प्रकार से मनुष्य की बीमारियों से पुराने ज़माने में गाँव के गाँव ख़त्म हो
जाते थे (हैजा , प्लेग , इत्यादि) ठीक उसी प्रकार से यदि बीमारियाँ भी फसलों में लग जाती थी तो पूरी
फसल की फसल, जिले से लेकर देश तक, सारी फसल बर्बाद हो जाती थी और लोग भूखों मर
जाते थे। सन 1845
में आयर्रर्लैंड
में आलू में पछेती झुलसा (Late
blight of potato) नामक बीमारी से
आलू की फसल बर्बाद बर्बाद हो गयी थी, और इससे भोजन का अकाल पड गया था और भूख से लगभग 10 लाख लोगों की मौत हो गयी थी। सन 1943 में बंगाल में धान की फसल में ब्राउन लीफ स्पॉट
नामक बीमारी आने से धान की फसल नष्ट हो गयी थी जिसकी वजह से लगभग 25 लाख लोगों की भूख से मौत हो गयी थी। ये दोनों
बिमारियां विभिन्न कवकों (Fungus)
के वजह से हुई थी
परन्तु उस समय फसलों की बीमारियों का ज्यादा ज्ञान न होने और बीमारियों के लिए
अच्छी दवाओं के न होने की वजह से उनकी रोक थाम भी नहीं हो पाती थी।
विभिन्न प्रकार की
फसलों पर विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ भी आती हैं, जिनके कारण फसलें लगभग पूरी तरह से नष्ट तक हो जाती है। इन बीमारियों के
बिभिन्न कारण होते है। पौधों की बीमारियों को प्रमुखता से दो भागों में बाँट सकते
हैं। एक तो ऐसी बीमारियाँ जोकि वातावरण के कारण होती है और दूसरी जिनका कारण सूछम
जीव होते हैं। पोषक तत्वों की कमी से भी बहुत सारी बीमारियाँ होती है जैसे खैरा
बीमारी, जिंक नामक पोषक तत्व की कमी से होता है। इसी प्रकार
से वातावरण में ज्याद तापमान, कम तापमान, ऑक्सीजन की कमी इत्यादि से भी पौधों और फसलों
में विभिन्न किस्म की बीमारियाँ होती हैं। कुछ तत्वों की ज्यादा मात्र से भी कई
प्रकार की बीमारिया उत्त्पन्न होती हैं।
सूछम जीवों द्वारा भी पौधों और फसलों में विभिन्न प्रकार बीमारियाँ होती हैं। फसलों में सूछम होनी वाली बिमारियों में ज्यादातर बीमारियाँ फफूंद( Fungus) के कारण होती है, कुछ बीमारियाँ जीवाणु (Bacteria) से होती है, कुछ सूत्रकृमि (nematode) से, कुछ विषाणु (Virus) से और कुछ परजीवी पौधों (Parasitic higher plants i.e. Cuscuta) से भी होती हैं। इसके अलावा कुछ अन्य प्रकार के जीव भी पौधों में बीमारी पैदा करने के कारक होते हैं लेकिन उनका महत्त्व ऊपर जिक्र किये गए कारकों से कम है।
इन सभी सूच्म जीवों द्वारा होने वाली बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए जिन दवाओं या पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है उन्हें क्रमशः फफूंदनाशी (Fungicide), जीवाणुनाशी (Bactericide), सूत्रक्रिमिनाशी (Nematicide) इत्यादि कहते है।
अभी तक विषाणुओं को नियंत्रित करने वाली किसी दवा या पदार्थ का निर्माण नहीं किया जा सका है। इसका मुख्य कारण यह है कि विषाणुओं में केवल प्रोटीन और नुक्ल्लिक अम्ल ही पाया जाता है, जो कि सभी जीव जंतुओं में भी पाया जाता है। विषाणु के रोगों के नियंत्रण का एक मात्र उपाय है कि किसान उस फसल की ऐसी किस्म उगाये जो कि विषाणुरोधी किस्म हो।
https://upbpsingh.blogspot.in/2017/02/agriculture-basic-understanding-in-hindi.html
https://upbpsingh.blogspot.in/2017/03/blog-post_31.html
सूछम जीवों द्वारा भी पौधों और फसलों में विभिन्न प्रकार बीमारियाँ होती हैं। फसलों में सूछम होनी वाली बिमारियों में ज्यादातर बीमारियाँ फफूंद( Fungus) के कारण होती है, कुछ बीमारियाँ जीवाणु (Bacteria) से होती है, कुछ सूत्रकृमि (nematode) से, कुछ विषाणु (Virus) से और कुछ परजीवी पौधों (Parasitic higher plants i.e. Cuscuta) से भी होती हैं। इसके अलावा कुछ अन्य प्रकार के जीव भी पौधों में बीमारी पैदा करने के कारक होते हैं लेकिन उनका महत्त्व ऊपर जिक्र किये गए कारकों से कम है।
इन सभी सूच्म जीवों द्वारा होने वाली बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए जिन दवाओं या पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है उन्हें क्रमशः फफूंदनाशी (Fungicide), जीवाणुनाशी (Bactericide), सूत्रक्रिमिनाशी (Nematicide) इत्यादि कहते है।
अभी तक विषाणुओं को नियंत्रित करने वाली किसी दवा या पदार्थ का निर्माण नहीं किया जा सका है। इसका मुख्य कारण यह है कि विषाणुओं में केवल प्रोटीन और नुक्ल्लिक अम्ल ही पाया जाता है, जो कि सभी जीव जंतुओं में भी पाया जाता है। विषाणु के रोगों के नियंत्रण का एक मात्र उपाय है कि किसान उस फसल की ऐसी किस्म उगाये जो कि विषाणुरोधी किस्म हो।
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