जलवायु
परिवर्तन का कृषि रक्षा से सम्बन्ध @ recent cases
वातावरण में हो रहे
परिवर्तन की वजह से मानव जीवन पर इसके दुष्परिणाम तथा भयावहता की समझ में
बड़ी बाधा यह है कि बहुत से लोग वातावरण का मनुष्य, तथा
फसलों में होने वाली बीमारियों के सम्बन्ध को ठीक से समझ नहीं पाते। सामान्यतः
हम यह समझते हैं कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव लम्बे समय पर दिखाई पड़ेगा, इसके लिए
तुरंत चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु
यदि हम अभी जल्दी में कुछ कृषि पर पड़े दुष्प्रभाव का संज्ञान ले चाहूँगा तो पता
चले गा कि इसका सीधा सम्बन्ध वातावरण और जलवायु परिवर्तन से है ।
धान की फसल में पत्ती लपेटक
कीट का प्रकोप : यह बात पिछले 2015 (खरीफ या बरसात के मौसम की
फसल सीजन) की है, जिसमे उत्तर भारत के बहुत बड़े छेत्र में दो फसलें प्रमुख तौर पर
प्रभावित हुई थी। जिसमे धान की फसल और कपास की फसल शामिल थीं। इन फसलों
पर कुछ कीटों ने फसल उत्पादन पर बहुत बुरा डाला, धान की
फसल में बहुत ही सामन्य / कमजोर कीड़ा (week insect pest) जिसका
नाम पत्ती लपेटक (leaf folder) कीट है। चुकि यह
कीड़ा/कीट बहुत ही नाजुक होता है अतः इसका नियंत्रण बहुत ही आसन होता है। इसके
नियंत्रण की कई विधियाँ है। बिना
कीटनाशकों के भी इनका नियंत्रण किया जा सकता है। जैसे कि
यदि इसका प्रकोप हो तो यदि मिटटी के तेल में डुबोई हुई रस्सी के साथ फसल पर चला
दिया जाय तो ये कीड़े जमीन पर गिर जाते हैं और ख़त्म हो जाते हैं। यदि किसी
बहुत कम शक्ति के कीटनाशक का भी स्प्रे कर दिया जाय तो यह कीड़े आसानी से नियंत्रित
हो जाते हैं। यह कीट धान की सुगन्धित प्रजाति की फसल में अक्सर
आता है।
इसका प्रकोप धान की रोपाइ
के 20 -25 दिनों के
अन्दर हो जाता है। इस कीट के लार्वा (सुंडी-Larva) का
नुकसान वाला अवस्था (larva) 20-30 दिनों का होता है। इस कीट
को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता क्यूंकि इसका नियंत्रण आसान होता है। परन्तु
सन 2015 के खरीफ
सीजन में इस कीट का प्रकोप इतना ज्यादा भयंकर हो गया था, जिस
प्रकार से कि इस वर्ष 2016 में, कई शहरों
में डेंगू की समस्या हो गयी थी। 2015 में धान
के किसानो को, इस कीट के नियंत्रण के लिए तीन से चार बार अनेक प्रकार के कीटनाशकों
का स्प्रे करना पड़ा, फिर भी इसका नियंत्रण नहीं हो पाया और अंत में फसल की पैदावार
प्रभावित हुई। चुकि इस कीट का नुक्सान करने की अवधि केवल 20-30 दिनों तक का ही होता है, अतः यह
समय निकलने के बाद यह समस्या स्वतः ही समाप्त हो गयी। परन्तु
किसी कीट नाशकों द्वारा इसका नहीं हो पाया। यह
समस्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भयंकर थी परन्तु जहाँ भी
धान की सुगन्धित प्रजाति उगाई जाती है, इसका प्रभाव प्रभाव पड़ा जो कि लगभग पूरे उत्तर
भारत में था। परन्तु
चुकि इसका प्रभाव कुछ ही समय के बाद ख़त्म हो जाता है और इसके द्वारा पैदावार
बिलकुल ही शून्य नहीं होती अतः सरकारी स्तर से इसको गंभीरता से नहीं लिया गया।
कपास की फसल में इस घटना से
सरकारी तंत्र को संदेह हुआ, कि शायद यह समस्या इसलिए हुई कि विभिन्न कंपनियों ने घटिया कीटनाशकों
को बाजार में दिया है, जिसकी वजह से ये कीट नियंत्रित नहीं हो रहे हैं। कई
कंपनियों ने डर के मारे अपने कई कीटनाशकों को बाजार से वापस कम्पनी में मंगवा लिया। किसी भी
जांच से बचने के लिए कई व्यापारियों ने भी अपने कीटनाशकों के स्टॉक को नहरों तक
में फेक दिया। यह कीट रस चूसक कीट था। ये कीट
फसल पर बहुत नकारात्मंक प्रभाव डालते हैं। परन्तु
इनसे कोई किसान खौफजदा नहीं होता क्यूंकि इनका भी नियंत्रण बहुत आसान होता है। बाजार
में विभिन्न कंपनियों की कई तरह की कीटनाशक उपलब्ध है, जिनके
द्वारा इनका नियंत्रण बहुत आसन और इफेक्टिव होता है। जब किसान
को फसल में ये कीड़े दिखाई पड़ते हैं तो वो इसके लिए कोई भी कीटनाशक बाजार से लाकर
स्प्रे कर देता है और यह कीट नियंत्रित हो जाता हैं ।
परन्तु इस बार इस कीट का
नियंत्रण बाजार उपलब्ध किसी भी कीटनाशक से नहीं हो पाया। किसानो
ने कपास की फसल पर कम से कम दस से पंद्रह विभिन्न प्रकार के कीटनाशकों का स्प्रे
किया, परन्तु
नियंत्रण नहीं हुआ। यह रस
चूसक कीट कई प्रकार की फसलों पर हमला करते हैं, परन्तु आसानी से नियंत्रित हो जाते हैं।
ऐसा नहीं हो सकता की किसी
एक सीजन में सभी कंपनियों ने सभी कीटनाशकों की नकली खेप तैयार कर दी हो, वो भी
सभी तरह के टेक्नीकल / फार्मुलेशन की। सभी
कंपनिया एक साथ सारे कीटनाशक घटिया क्वालिटी / गुणवत्ता के नहीं बना सकती ।
अतः समस्या कुछ और थी। किसी भी
कीट या बीमारी के प्रकोप को आपने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है। एक कमजोर
पौधा (Susceptible host), बीमारी या नुक्सान पहुचने
की छमता वाला कीट या बीमारी करने वाला एजेंट (virulent pathogen) और
बीमारी या कीटों के लिए अनुकूल वातावरण (congenial environment for the pest/pathogen)। यदि ये
तीनो चीजे मौजूद होती हैं तो ही बीमारी या कीटों का प्रकोप हो पाता है। सन 2015 के खरीफ सीजन में चुकि
बारिश बहुत कम हुई या जहाँ हुई भी वहां बहुत बिखरी हुए छेत्र में (scattered and uneven) हुई। जिससे
वातावरण सामान्य नहीं रहा, जैसा कि सामान्य खरीफ के सीजन में होता है। इसके साथ
ही कीटों के हमले या प्रकोप के लिए तीनो अवस्थाएं ठीक ठीक उपलब्ध हो गयीं फलतः
कीड़े बहुत मजबूती के साथ फसल पर हमला किये। चुकि
वातावरण कीटों के लिए काफी अनुकूल था अतः वे बहुत शक्तिशाली हो गए, इससे
उनके प्रजनन ( breeding) में भी
बहुत तेजी आई। कुछ कीट दवाइयों से मर भी गए, परन्तु
उनकी संताने (progeny) ज्यादा
थीअतः कीटनाशकों के असर ख़त्म होने के बाद जब कीट नुक्सान पहचानी वाली अवस्था में
आये तो उन्हें पुनः प्रजनन का मौका मिल गया, और ये
कीट बहुत मजबूती के साथ फसलों पर हमला किये ।
ऐसी
घटनाएं तभी देखने को मिलती है जब वातावरण में बड़ा बदलाव आता है। यदि मौसम
सामान्य होता है तो कीटों और बीमारियों का नियंत्रण आसानी से हो जाता है। इसी तरह एक बार हरयाणा के फतेहाबाद जिले में धान की सुगन्धित प्रजाति में bacterial
leaf blight नामक
बीमारी की वजह से किसानो ने खड़ी फसलों को खेत में ही नष्ट कर दिया था ।
कहने का आशय यह है कि वातावरण में बदलाव से कोई भी
कीट अथवा बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस (विषाणु) इत्यादि
बहुत सक्रीय और ताकतवर हो जाते हैं, उनकी प्रजनन छमता बढ़ जाती है और वो सामान्य
परिस्थितों की तुलना में ज्यादा ताकतवर हो जाते हैं और उनको नुक्सान पहुँचाने वाले
तत्व उनपर असरकारक नहीं होते।
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