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Monday, 16 October 2017

कृषि में डी. बी. टी.(D.B.T.) से कृषकों में संदेह !



उत्तर प्रदेश में पिछली सपा सरकार ने कृषकों को बिना भ्रस्टाचार के ज्यादा से लाभ देने के उद्देश्य से कृषि विभाग में डी. बी. टी. योजना लागु कर दी। यह एक जल्दबाजी में लिया गया फैसला था। आज यदि कोई किसान कृषि विभाग द्वारा कोई सब्सिडी का लाभ पाना चाहता है तो उसे कृषि विभाग द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले बीजों, कृषि दवाओं इयादी के लिए पहले पूरे पैसे चुकाने पड़ते हैं बाकि सरकारी  छूट (सब्सिडी) का पैसा सीधा कृषक के खाते में बाद में आता है


इस योजना के साथ बड़ी विडंबना यह है कि ज्यादातर कृषक समाज, देर से या बाद में आने वाली छूट पर भरोसा कम ही करता अथवा उसमे संदेह भी देखता है कि छूट मिलेगी भी या नहीं ?. किसान सस्ते में उपलब्ध और त्वरित छूट चाहता है

 निह्संदेश इस योजना (D.B.T.) के पहले भ्रस्टाचार बहुत व्यापक पैमाने पर व्याप्त था। पर उस पर अब बहुत हद तक नियंत्रण हो चुका है। लेकिन इस योजना की एक व्यवहारिक पहलू यही है कि किसान छोटी मोटी छूट के लिए बहुत भाग दौड़ नहीं करना चाहता है. चुकी कृषि विभाग के स्टोर भी दूर दूर होते हैं अतः किसान कुछ मंहगा ही सही पर आपने आस पास की दुकानों से सामान लेना पसन्द करता है



 ज्यादातर किसानो का यह भी कहना है कि यदि वो किसी भी छोटी मोटी छूट के लिए दूर दूर जाना पडे और छूट का पैसा बाद में (बिना किसी निर्धारित समय में) आये, यह उनके लिए ज्यादा सुविधा पूर्ण नहीं लगता है। चुकी छूट भी बहुत ज्यादा नहीं होती है और उसकी एक सीमा है, ऐसे में किसान ज्यादा भागदौड़ से बचना चाहता है। कृषि विभाग से छूट का पैसा भी बहुत सारे मामलों में देर से ही प्राप्त होता है, अतः अधिकतर किसान इस योजना के लाभ से विमुख भी होने लगते है।छूट प्रप्ति के नियम भी बहुत कठिन होता है. इन बातों से किसानो में इस योजना के लिए बहुत उत्त्साह नहीं दिखाई पड़ता। अतः इस योजना के किसी सरलतम रूप में लागु करने की आवश्यकता है। 

Sunday, 1 October 2017

किसान का एक उपभोक्ता के रूप में सम्मान


  मोदी सरकार  को इस बात का धन्यवाद करना होगा कि बहुत शीध्र ही उन्होंने कृषि छेत्र में  कालाबाजारी ख़त्म करने का सार्थक प्रयास किया और उसमे पूर्णतया सफल भी रहे। यह कोई मामूली सफलता नहीं है। मैंने अपने सामने देखा है कि किसान किस प्रकार से लाचार होकर यूरिया और डाई (D.A.P.) के लिए दुकानों पर घंटो लाइन में लगता था। कई बार भीड़ के अनियंत्रित हो जाने पर पुलिस द्वारा लाठी चार्ज भी करना पड़ता था। 


सीजन आने पर यूरिया और डाई की कमी के चलते और कई बार कालाबाजारी रोकने हेतु उर्वरक की गाड़ियाँ सीधे थानों में मगवाई जाती थीं जहाँ पुलिस की उपस्थिति में किसानो को खाद का वितरण किया जाता था। यह बात ज्यादा पुराणी नहीं है बल्कि केवल तीन साल पहले तक यही स्थिति पूरे उत्तर पश्चिम भारत में थी। मुझे इस बारे में दक्षिण भारत की स्थिति का ज्ञान नहीं है।  

किसानो को यूरिया के निर्धारित दाम पर से कम से कम पचास रुपये ज्यादा चुकाने पड़ते थे, डाई (D.A.P.)  पर कम से कम तीन सौ  से चार सौ रुपये अधिक तक चुकाने  पड़ते थे। इसके साथ ही दूकानदार, किसानो को उर्वरकों की कमी का हवाला देकर उन्हें यूरिया और डाई के साथ अन्य गैर जरूरती सामन भी साथ में किसान को खरीदने के लिए विवश करते थे किसान के राजी होने के  बाद ही  ये सारे उर्वरक दुकानदार  द्वारा किसान को उपलब्ध कराये जाते थे। अन्यथा की स्थिति में किसान को जलील करके भगा दिया जाता था। ज्यादातर किसान छोटी जोतों के हैं, अतः उनको खाद / उर्वरक के दूकानदार कुछ भी नहीं समझते थे। जिस प्रकार देसी और कुछ विदेशी शराबों की दूकान वाले ग्राहकों से बेहद भद्दगी से पेश आते हैं उसी प्रकार उर्वरक बेचने वाले दुकानदार चाहे वह सरकारी हों अथवा प्राइवेट किसानो से उसी तरह पेश आते थे। किसान बेचारा मजबूरी में उनसे ही सामान खरीदने को मजबूर होता  था, चुकी उर्वरक की बाजार में गिनी चुनी दुकाने होती थी अतः चाँद दुकानदारों का जलवा बरकरार रहता था



जब खेत में उर्वरक डालने का  सीजन शुरू होता था तो यूरिया और डाई (D.A.P.) को अधिक मूल्य पर बेचने के साथ साथ किसानों कई सारे अन्य गैर जरूरी उत्त्पद मजबूरन थमा दिए जाते और किसान बेचारा बेसहारा सा अपनी बात कह भी नहीं पाता था और उन सारे गैर जरूरती सामान को मजबूरन अपने खेत में डालना पड़ता था भले ही उनके लाभ दिखे या न दिखें। यदि लाभ है भी तो चीजों को जबरदस्ती ग्राहक को बेचने का किसी दूकानदार को कोई अधिकार तो नहीं है



मोदी सरकार आने के बाद से एक तो लगातार दो वर्ष सूखे की स्थिति रही। जिससे खाद का उपयोग भी कम हुआ और खादों के ज्यादा मात्रा में उपलब्ध रहने से ग्राहकों से लूट कम हो गई। पिछले दो वर्षों में हालत यह हो गई कि जो किसान दुकानदारों से खाद के लिए विनती करता था, अब दुकानदार किसानो से विनती करने के साथ साथ कम दाम में खाद बेचने में प्रतिश्पर्धा भी कर रहे हैं



यह तो स्थति पिछले दो वर्षो की है। पर अब जो स्थिति आने जा रही है उसमे किसान चाहे छोटा ही हो पर कितना भी बड़ा दूकानदार हो उसको किसान के सामने सर झुकाना ही पड़ेगा। क्यूंकि अब कालाबाजारी की सम्भावना समाप्त ही हो गयी है। अब हर उर्वरक की  दूकान पर बायोमेट्रिक मशीन लग चुकी है और किसान को अधार कार्ड दिखाने और अंगूठा लगाकर मशीन द्वारा संस्तुति होने पर ही खाद उपलब्ध होगी। जिससे केवल लाइसेंसे धारी दुकानदार और एक नियम के तहत बने मार्ग से ही उर्वरक प्राप्त कर सकेंगे जिससे उर्वरकों की कमी नहीं हो सकती है



इसमें दूसरी सबसे बहतर बात यह है कि अब हर किसान को स्वतः मशीन द्वारा छपी छपाई (auto generated printed bill) बिल मिलेगा जिसमे उस उर्वरक का मूल्य स्पस्ट रूप से लिखा रहेगा। इस योजना से कोई भी दूकानदार अपनी जिम्मेदारियों से न तो भाग पायगा, उसका स्टॉक भी दिखाई पड़ेगा, और किसान को मूल्य पता रहने से, उर्वरक के लिए ज्यादा दाम भी नहीं लिया जा सकेगा



सौ प्रतिशत यूरिया नीम लेपित करने से, इसका इस्तेमाल उद्द्योग धंधों में बंद हो चूका है और सबसे जरूरी बात कि जो मिलावटखोर दूध को सफ़ेद करने के लिए यूरिया का इस्तेमाल करते थे, वो अब यूरिया  का इस्तेमाल उसमे नहीं कर पाते हैं। क्यूंकि नीम लापित यूरिया के मिलावट से दूध में नीम की दुर्गन्ध आने लगती है तो यह दूध बिक नहीं सकता। अतः स्वास्थ्य के दृष्टि से भी यह बहुत महत्पूर्ण उपलब्धि है। यूरिया नीम कोटेड करने से यूरिया की छमता में भी वृद्धि हो जाती है
इन सब दृष्टि से यह सारे महत्वपूर्ण कदम मोदी सरकार की ही देन है जिसमे किसानो का भी फायदा है, तमाम कंपनियों को और सरकारी तंत्र को भी बेहद राहत मिली है। 

Wednesday, 20 September 2017

चन्दन की खेती के लिए सुझाव



उत्तर प्रदेश में किसानो के साथ काम करते हुए एक बात और पक्की हुई कि लगबघ ९० % किसान नयी बात को तुरंत न स्वीकार करने की आदत है। पांच प्रतिशत किसान बातों पर ध्यान देते है और एक प्रत्रिशत सभी कम किसी अच्छी बात पर अमल करते हैं। बाकी जो भी उन्नति या दुर्गति होती है वो आपसी देखा देखी होती है। यदि पडोसी अथवा गावों में कोई किसान सफल हुआ तो उसे लोग चोरी चुपके नक़ल करने की कोशिश करते हैं। समाज में कोई ढकोसला और ढोंग अपनाने में सभी माहिर होते हैं, पर उनके भले की बात बड़ी मुस्किल से वो ग्रहण करने की हालत में होते हैं।



एक दिन डी डी न्यूज़ में गुजरात के एक प्रगतिशील किसान की सच्ची घटना का जिक्र हो रहा था। उस किसान ने चन्दन की खेती से कई करोंडो रुपये कमाए। मैं भी बहुत उत्त्साहित हुआ। मैंने तय किया कि इस बरसात में चन्दन के कुछ पेड़ लगवाने हेतु किसानों को प्रेरित करूंगा।

 पर जब जब में किसानों के पास जाता और बताता की इससे यह फैयदा है, तो कई किसानों को यह संदेह होता था कि शायद इसमें इनका कोई फैयदा है ! जबकी मुझे चन्दन की पौध के लिए इन्टरनेट पर बहुत ढूँढना पड़ा तब जा कर नजदीक में एक चन्दन का पौध सप्प्लाई करने वाला मिला। मेरी मंशा थी की यदि कुछ किसान भी चन्दन का पेड़ अपने घर में लगवाते हैं तो उनके छोटे बच्चे जब तक बड़े होते, तब तक उनकी पढाई या शादी के लिए उनके पास पर्याप्त पैसा होगा। अतः कुछ लोगों का कल्याण तो हो ही जाएगा। जब मैं किसानो से इस बारे में बात चीत करता था तो किसानो के कुछ सामान्य संदेहास्पद सवाल सामने आये जिसपर किसानों ने कुछ विचित्र विचित्र तर्क भी किये। जिनके बारे में जिक्र करना चाहूँगा :

१. क्या उत्तर प्रदेश का वातावरण चन्दन के पेड़ के लिए अनुकूल है ?

 जवाब : जब बार खबर आती है कि चोर फल अफसर के घर से चन्दन के पेड़ चोरी हो गए। यदि चोरी हुए तो जाहिर सी बात है कि पेड़ होंगे और बड़े भी होंगे और महगे भी इसकारण चोरी हुए। तो इसका मतलब यह है की यहाँ का वातावरण में चन्दन का पेड लगाया जा सकता है।

२. यह पौधा कहाँ मिलेगा ? 


 जवाब : चन्दन के पेड़ को इन्टरनेट के माध्यम  से कई नर्सरी से प्राप्त किया जा सकता है। जो नजदीक और भरोसेमंद हो वहां से यह प्राप्त कर सकते हैं।

३. तैयार होने में कितना समय लगता है और कितना दाम मिलता है ? 

 जवाब : इसकी आर्थिक रूप से उम्र १५ साल की होती है और तब लाल चन्दन के एक पेड़ की कीमत लगभग पांच लाख रूपये होती है।

४. पौधा जंगल से लाया था पर सूख गय, लगता है यहाँ का वातावरण अनुकूल नहीं था :

 जवाब : चन्दन का पेड़ एक परजीवी है। अतः इसके साथ दुसरे पौधे जरूर होने चाहिए नहीं तो यह जिन्दा नहीं रहता। अतः इसके आसपास की घास फूस को पूरी तरह नष्ट नहीं करना चाहिए। बाकि पेड़ों के आसपास के खर पतवार साफ़ कर देने चाहिए पर चन्दन के आस पास यह क्रिया शुरुवाती तीन सालों तक नहीं करनी चाहिए। इसका रोपण सामन्यतः मानसून के महीने में करना चाहिए जिससे कि इनमे जिन्दा रहने की सम्भावना  बढ़ जाती है।

५. पौध से पौध की दूरी कितनी रखनी चाहिए ?

 जवाब : इसके पौधे से पौधे की दूरी 45*45*45 सेंटीमीटर रखनी चाहिए।

६. इस पेड़ के लगाने पर सांप तो नहीं आते ? 

 जवाब : यह एक भ्रम ही है।

७. घर के पास लगा सकते हैं ?

 जवाब : बिलकुल।

८. कहीं चोरी न हो जाय ? 

 जवाब : यदि ज्यादा दूर लगा दिया है तो चोरी की सम्भावना बढ़ जाती है , पर जितना संभव हो घर के आस पास या ऐसी जगह पर लगाना चाहिए जहाँ आसानी से देखभाल की जा सके।



९. बाजार कहाँ है ? 

 जवाब : चन्दन बहुत कीमती पेड़ है अतः जिस चीज की कीमत ज्यादा है उसका बड़ा बाजार होगा इसी कारण वह कीमती है। अतः बाजार की चिंता नहीं करनी होती यह बेहद आसानी से अच्छे दामो में बिक जाता है।

Tuesday, 19 September 2017

गावों में मिटटी जांच योजना एक आर्थिक कल्पवृछ




 कल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश के सभी ग्राम पंचायतों में मिटटी की जांच की व्यवस्था की घोषणा की। यह एक अत्यंत दूरदर्शी और सराहनीय कदम है। यह उत्तर प्रदेश के लिए आर्थिक कल्पवृछ साबित हो सकता है। इस निर्णय के काफी सकारात्मक आर्थिक और दूरगामी परिणाम दिखाई पडेंगे।





उत्तर प्रदेश में पहले से ही अनेक योजनाओं के तहत लगभग हर बीसवी न्याय पंचायत में सरकारी कृषि के भवन उपलब्ध हैं। जिनमे योजनाओं के ख़त्म होने के बाद से ताले पड़े हुए हैं। या दुसरे लोग स्थानीय लोगों की मदत से कब्जा जमाए बैठे हैं। इन भवनों का इस्तेमाल मिटटी जांच प्रयोगशालाओ के रूप में किया जा सकता है । चुकी प्रयोगशालाओं को खोलने का लच्य ग्राम पंचायत स्तर पर है अतः मेरे सुझाव में सरकार को किसी भी नए निर्माण में अपना हाथ नहीं डालना चाहिए। सरकार को चाहिए कि गाँव में ही उपलब्ध किसी भी घर के कुछ कमरे किराये पर लेकर प्रयोगशालाएं चलाइ जाएँ जिससे गाँव के कुछ लोगों को किराये के रूप में कुछ धन भी अर्जित होगा और सरकार को नए भवन निर्माण के लिए भारी भरकम रकम खर्च करने से भी मुक्ति मिलेगी।

                                
              चित्र : मिट्टी जांच लैब


आज उत्तर प्रदेश के प्रत्यक न्याय पंचायत में कृषि विशेषज्ञ उपलब्ध हैं उसके साथ ही कृषि विज्ञान केन्द्रों में वैज्ञानिक भी तहसील स्तर पर उपलब्ध हैं। यदि प्रत्यक ग्राम पंचायतों में एक मिटटी जांच की प्रयोगशाला खोली जायेगी तो न्याय पंचायत स्तर के कृषि कर्मियों और विशेषज्ञ को वहां बैठने की सुनिश्चित जगह मिलेगी। अतः मिटटी की जांच कराने आपने वाला किसान कृषि विशेषज्ञ से भी खेती के विषय में आसानी से राय भी प्राप्त कर सकेगा।




आज की स्थिति यह है कि मिटटी की प्रयोगशालाएं जयादातर जिले स्तर पर हैं और कृषि विशेषज्ञ केवल ब्लाको पर ही उपलब्ध होते हैं। यदि कृषि विशेषज्ञ गाँव में जाते भी हैं तो कभी किसान नहीं मिलता और कभी विशेषज्ञ जिसके घर बैठा होता है उसके घर से दुसरे कुछ लोगों की दुश्मनी होती है जिससे अन्य किसान वहां आते ही नहीं। अतः मिटटी की प्रयोगशालाएं बनने से छोटी छोटी समस्याएं खुद ब खुद दूर हो सकती हैं और किसान मिटटी की जांच के लिए सुलभता से अपने ही ग्राम में जांच और सलाह भी प्राप्त कर सकता है।







यह योजना कम खर्चीली परन्तु बहुत यह बेहद महत्वपूर्ण निवेश होगा। इससे सौ प्रतिशत तय है कि उत्तर प्रदेश में किसानो की आमदनी आने वाले तीन सालों में ही दुगनी हो जायेगी। जो काम मोदी सरकार नहीं कर सके वह एक झटके में योगी सरकार करने जा रही है और उत्तर प्रदेश को विकास की नयी उचाइयों पर पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता है।









मिटटी की जाँच इसलिए आवश्यक है कि पिछले कई दशकों से रासायनिक खादों के धड़ल्ले से प्रयोग होने के कारण जमीन में बहुत बड़ा परिवर्तन आ चुका है। अब जमीन की उत्त्पदाकता कम हो चुकी है। अतः मिटटी की जांच से यह पता चलेगा कि किस मिटटी में किस तत्व की अधिकता है और किस चीज की कमी और यह भी पता चलेगा कि क्या सामान्य है। इसके आधार पर किसान उर्वरकों (fertilizers) का संतुलित प्रयोग कर सकेंगे जिससे कि मिटटी का स्वस्थ अच्छा होगा और फसलों की उत्त्पदाकता बढ़ेगी और किसान तथा देश दोनों को बहुत बड़ा लाभ होगा।





उत्तर प्रदेश की मिटटी पहले से ही बहुत उपजाऊ है, यहाँ पानी भी प्रचुर मात्र में है। यदि सरकार साथ दे जैसा कि दिखाई पड़ रहा है तो यहाँ की गरीबी मिटने में बहुत ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। यह मिटटी कि जांच लैब, एक कृषि परामर्श केंद्र के रूप में विकसित हो जाएगी जिससे किसानों को हर तरह के कृषि पर आधारित उद्द्योगों का भी ज्ञान मिलेगा।





आज मिटटी की जांच जिले स्तर और कहीं कहीं यह तहसील स्तर पर होने से प्रयोगशालाओं पर बहुत अधिक दबाव होता है। जिससे कि बहुत सारी मिटटी की जांचे ठीक ढंग से नही हो पाती ऐसे में मिटटी की जांच का फैयदा ही क्या ? ग्राम पंचायत स्तर पर यह सुविधा होने से मिटटी की जांच किसान के सामने हो जायेगी जिससे कि मिटटी की स्वास्थ्य की सटीक जानकारी प्राप्त हो सकेगी।

     
                             चित्र : मिटटी जांच किट





आज बहुत सारे देशों में मिटटी जांच हेतु जांच किट भी उपलब्ध हैं जिससे त्वरित जांच सुनिशिचत हो जाती है और समय तथा पैसा दोनों की बचत होती है। अतः सरकार को इस प्रकार की सफल मिटटी जांच किट्स का इंतजाम करना चाहिए, जिससे खर्च में कटौती की जा सके। इस प्रकार जांच किट्स की मदत से सामन्य पढ़े लिखे ग्रामों के युवा भी जांच आसानी से कर पायेंगे और केवल कृषि में इन्टर पास लड़के या बी. ए./ बी यस. सी. पास बेरोजगार भी रोजगार पा सकेंगे। और जांच भी आसानी से बिना किसी विशेषज्ञता के आधार पर कर सकेंगे। आज प्रदेश में 52 हजार ग्राम पंचायतें हैं। यदि संविदा पर भी नौकरी दी जाय तो 52 हजार ग्रामीण छेत्रों में रोजगार सर्जित होंगे और लगभग इतने ही ग्रामीणों के घरों को किराये प्राप्त होंगे। यह एक बेहद महत्वपूर्ण और दूरदर्शी सोच और कदम है जो प्रदेश की आर्थिक तरक्की में मदत्गार होगा।

Thursday, 7 September 2017

ट्रेक्टर और पॉवर टिलर की तुलना (tractor vs power tiller)


उत्तर प्रदेश एक बहुत बड़ा राज्य है जनसँख्या लगभग 22 करोड़ होने की वहज से यहं पर जमीनो की जोतें बहुत छोटी हैं यहाँ के ज्यादातर किसान खेती हेतु ट्रेक्टर का इस्तेमाल धड़ल्ले से करते हैंट्रक्टर के इस्तेमाल धड़ल्ले से बढ़ने के पीछे की वजह यह रही कि सन 1995 के आसपास किराये पर ट्रेक्टर का चलन बढ़ा, बहुत सारे किसान जिनके पास ट्रेक्टर खरीदने की पूँजी थी उन सभी ने इस लालच में ट्रेक्टर खरीदा कि खेती के आलावा घर के किसी सदस्य या किसी ड्राईवर को ट्रेक्टर पर लगाकर उसको किराये पर चलवाकर पैसे कमायेंगे


         चित्र : पावर टिलर (Power tiller)


 पर धीरे धीरे ऐसा हो गया कि एक ही गाँव में कई ट्रेक्टर हो गए और उन सभी में किराये पर चलने के लिए आपस में प्रतिश्पर्धा (competition) शुरू हो गया कुछ ट्रेक्टर  मालिक किसानों ने उधार पर काम करना शुरू कर दिया जिससे किराये पर ट्रेक्टर चलवाने वालों की बाजार ठंढी पड़ गयी अब धीरे धीरे ट्रक्टर को किराये पर चलवाने का नुक्सान सामने लगा

ज्यादातर किसान ट्रेक्टर खरीदने हेतु बैंकों से ऋण लेते हैं और किराये पर चलाना उनका मुख्य उद्देश्य होता है किराये पर उधार के चलने से, किसान ट्रेक्टर की मासिक क़िस्त नहीं निकलने की स्थिति में होता है और यदि यही स्थिति लम्बे समय तक रहने से किसान अपनी जमीन बेचने को मजबूर हो जाता है किसान में आपस में प्रतिश्पर्धा होने से, कोई भी छोटा ट्रेक्टर नहीं लेना चाहता हर किसान चाहता है कि उसके पास पडोसी से बड़ा ट्रेक्टर हो भले ही उसके पास जमीन पांच बीघा ही हो


किसान को अपनी जरूरतों के अनुसार ही कोई भी कृषि की मशीन या उपकरण खरीदने चहिये पर उत्तर प्रदेश में यह अपने अनुसार नहीं बल्कि दूसरों के अनुसार होता है। यहाँ पर अगर पडोसी के पास २ हार्श पावर का ट्रेक्टर है तो बगल वाला ३ हार्श पावर का ट्रेक्टर खरीदने की सोचेगा उसको अपनी वित्तीय स्थिति की चिंता नहीं होती बल्कि उसे दूसरों को नीचा दिखने की चिंता और प्रतिश्पर्धा होती है इस चक्कर में लोग कैसे भी करके ट्रेक्टर खरीद लेते हैं, और किराये पर चलाने लगते हैं पर किराए का बहुत सारा पैसा वापस नहीं आता है और अंत में जब यह स्थिति आती है कि बैंक ट्रक्टर खींच ले जायेगा तो जमीन बेचना ही आखिरी विकल्प बचता है

 
जमीन छोटी होने की वजह से बहुत कम ही किसानो को ट्रेक्टर की आवश्यकता है यदि किसी किसान के पास बीस बीघा खेती है तो उसके लिए पावर टिलर बहुत ही पर्याप्त है पावर टिलर की कीमत लगभग 1.5 लाख ही होती है जबकि ट्रेक्टर की शुरुवाती कीमत ही तीन लाख रूपये होती हैवहीँ पॉवर टिलर में तेल की खपत भी कम होती है और उसे एक ही व्यक्ति इस्तेमाल कर सकता है. ज्यादा लोगों  की उसमे आवश्यकता भी नहीं है पॉवर टिलर में छोटी ट्राली भी फिट हो सकती है जिससे कि बीस बीघा के किसान के लिए पावर टिलर की ट्राली पर्याप्त है
पावर टिलर के इस्तेमाल से खरपतवार नियंत्रण भी असानी से किया जा सकता है और खरपतवार नियंत्रद के लिए इस्तेमाल करने वाले खरपतवार नाशी रसायन के इस्तेमाल को बंद किया जा सकता है यह सारे कार्य ट्रेक्टर नहीं कर सकता है अतः पावर टिलर ट्रेक्टर से कहीं बेहतर है. मैंने दक्षिण भारत में देखा है जो बहुत बड़े किसान भी हैं वो लोग भी पवेर टिलर जरूर रखते है क्यूंकि जो काम ट्रेक्टर नहीं कर सकता वह पवेर टिलर कर सकता है। 

यह जान कर और देख कर बहुत ख़ुशी हुई कि बाराबंकी में किसान पॉवर टिलर का इस्तेमाल धड़ल्ले से करते हैं और उसे किराये पर भी खूब चलते हैं पॉवर टिलर छोटा होने से उसका इस्तेमाल बहुत सारी फसलों में होता है और वह किराये पर पूरे साल बुक रहते हैं ऐसे में जो किसान पावर टिलर को किसानो को किराए पर देते हैं उनको मुनाफा अधिक और पूरे साल होता रहता है। वही ट्रेक्टर केवल बड़े कामो में इस्तेमाल होने की वजह से उनका काम केवल मुख्य मुख्य सीजन में ही होता है

 अतः पॉवर टिलर दाम में कम होने के साथ साथ पैसा भी अधिक कमाकर देता है, लागत तथा खर्च भी कम आता है और कम् अवधि में कई तरह के काम कर पाता है अतः उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहाँ जमीने छोटी हैं वहां के किसानो को पॉवर टिलर पर अपेछा कृत ज्यादा भरोसा करना चाहिए यह उनकी वित्तीय सेहत के लिए बेहद अच्छा है और किसान को छोटी छोटी प्रतिश्पर्धा और ईर्ष्या का त्याग कर अपने वित्त का चिंतन करना चाहिए


मेरी सलाह में उत्तर प्रदेश में जिन किसानो के पास बीस से पचीस बीघे की खेती है उनको पोवेर्तिल्लेर का इस्तेमाल करना चाहिए। 

Wednesday, 30 August 2017

How to tackle Binneal bearing problem of mango



In mango crop the Binneal bearing is a challenging issue in Mango crop. To tackle this issue farmers need to start out some good practices.

1.    The farmers should remove most of the Blossoms/inflorescence from one side of the mango trees, either right side or left side(Thinning of inflorescence). But this needs to be remembered that which side was thinned.

2.       Use of some products such as soil application of Paclabutrazol 3 ml/10 liter of water in month of July. This is also a good option to tackle the problem of Binneal bearing issue in Mango.

The thinning of blossoms is a concept, to maintain the nutrient and energy balance in one side of the tree so that in the next mango season the tree can bear the flower and fruit on the thinned side.
The flowering in plants and trees consumes much of the energy. So thinning conserves energy of the plant. If flowers are thinned then for the next year the enough energy will be present on the thinned side. In current season the flower bearing side exhaust most of the plants energy so in the next year the non – thinned side bears less fruits.

If blossoms/ inflorescence are not thinned then the energy exhausts from whole of the tree during flowering so that next year whole plant/ tree bears less fruits. 


                                                                                          

Saturday, 26 August 2017

Organic Milk (आर्गेनिक दूध)

             Organic Milk  (आर्गेनिक दूध)       

 जिस प्रकार से आर्गेनिक खेती में फसलों का उत्पादन क्रत्रिम रासायनिक उर्वरकों और कृत्रिम जहरीले रासायनिक दवाइयों के बिना किया जाता है उसी प्रकार आर्गेनिक दूध के उत्पादन के लिए ऐसे पशुओं से दूध प्राप्त किया जाता है जिनको चारा, पानी तथा अन्य सभी प्रकार के आहार प्राक्रतिक रूप से दिए जाते हों.

 सामान्यतः आर्गेनिक दूध का स्रोत और उत्पादन पहाड़ी और पठारी छेत्रों पर उपलब्ध पशुओं से किया जाता है. क्यूंकि वहां पर पशु प्राक्रतिक रूप से उपलब्ध घास, चारा व् पानी खाते पीते हैं और देशी नस्ल होने के कारण उन्हें बीमारियाँ भी न के बराबर ही लगती है जिसकी वजह से उनके इलाज के लिए रासायनिक दवाओं का भी प्रयोग नहीं किया जाता. जानवरों के बीमार होने पर पहाड़ और पठार के लोग प्राक्रतिक रूप से और अपनी पारंपरिक रूप से जानकारी के अनुसार उनका इलाज स्वतः ही कर लेते हैं.

इस प्रकार से देशी नस्ल के पहाड़ी जानवरों से आर्गेनिक दूध आसानी से प्राप्त किया जा सकता है. परन्तु आजकल कुछ डेरीयां ऐसी भी खुल गयी हैं जो आर्गेनिक रूप से उपजे चारे और फसल को ही जानवरों को खिलाते है और शुद्ध पानी भी जानवरों को पीने के लिए देते हैं. अतः ऐसी डेरीयों से उत्पादित दूध भी आर्गेनिक दूध कहलाता है.


आर्गेनिक खेती और आर्गेनिक दूध, आर्गेनिक अंडा इत्यादि के उत्पादन करने का मुख्य लक्ष्य लोगों को आज के समय के घातक रासायनिक पदार्थों द्वारा दूषित अन्न व् दुग्ध उत्पादों से बचाया जा सके जिससे लोगों का अच्छा स्वास्थ्य व् दीर्घायु सुनिश्चित हो सके.  

Thursday, 24 August 2017

आर्गेनिक खेती

                               आर्गेनिक खेती

  आर्गनिक खेती का सामान्य आशय यह होता है कि बिना किसी कृत्रिम रासायनिक उर्वरक (Fertilizer) या कृत्रिम रासायनिक कीटनाशक या अन्य कोई कृषि की कृत्रिम रासायनिक दवाई के की  जाने वाली खेती।


ऐसी खेती बेहद मुश्किल और चुनौती पूर्ण होती है क्यूंकि आज के समय में हर तरफ ज्यादा मात्रा में फसल और नयी नयी फसल की किस्मों की वजह से पौधों में और फसलों में बहुत सारे कीटों और बिमारियों का प्रकोप होता है, ऐसे में किसी फार्म या खेत पर बिना किसी रासायनिक दवा (Pesticide) के खेती करना लगभग नामुमकिन सा ही प्रतीत होता है।




पर आर्गनिक खेती करने के कुछ नियम होते हैं जिसे यदि किसान कडाई से पालन करे और अपने खेत के अनुसार कुछ नया प्रयोग करता रहे तो यह संभव भी है। पर पुनः यह बात ध्यान रखने वाली है कि यह बहुत कठिन है। इसी वजह से आर्गनिक खेती के से उत्पादन कम हो जाता है और ऐसे कृषि उत्पादों के दाम भी अधिक होते हैं।


 आजकल आर्गनिक के नाम पर धोखे की संभावनाएं भी ज्यादा हैं। क्यूंकि बड़े पैमाने पर सब्जियां और फल आर्गानिक तरीके से करना बेहद मुश्किल है। इस कारण इस प्रकार के उत्पाद आम तौर अधिक मात्र में भारत में तो नहीं मिल सकते। आर्गनिक कृषि उत्पाद बेचने वाले बहुत सारे लोग गलत दावा भी करते हैं।

Saturday, 10 June 2017

विंड ब्रेक और शेल्टर बेल्ट (Wind break and shelter belt)

                  Wind break and shelter belt

कृषि कार्यों में तेज हवाएं कई बार समस्या का कारण बनती है। तेज हवाओं से खेत में खड़ी फसलें पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं तेज हवाओं के मौसम में अक्सर पेड़ों से अपरिपक्कव फल गिर जाते जिससे किसानो को बहुत आर्थिक नुक्सान होता है जब तेज हवाएं बहुत बड़े छेत्र में में कहर ढाती हैं उससे बहुत बड़े हिस्से की कई फसलें नष्ट हो जाती है जिससे किसानो को तो नुक्सान होता ही है पर साथ में उन फसलों के नष्ट होने के कारण उनके मूल्य बहुत ज्यादा बढ़ जाते हैं जिससे आम लोगों को भी महगाई से सामना करना पड़ता है तेज हवाओं से कई अनाज और दलहन के साथ साथ फलों की फसलों पर सबसे ज्यादा नुक्सान होता है जैसे धान, गेहू, मक्का, बाजरा, अरहर, आम इत्यादि अतः तेज हवाओं से बचाव एक बड़ी चुनौती होती है इसका सामना करने के लिए हमें ऐसी संरचना का निर्माण करना पड़ता है जो की तेज आने वाली हवाओं के प्रवाह को कम कर दें
 इसके लिए दो तरह की संरचना का निर्माण किया जाता है एक में तो पेड़ों को इस प्रकार लगाया जाता है जिससे कि वो हवाओं की रफ़्तार को रोकें और दूसरी संरचना का निर्माण सीमेंट (cement / concrete)  से किया जाता है सीमेंट की बड़ी सी दीवार फार्म/ खेत के चारो और बनाने से हवाओं की रफ़्तार को कम किया जा सकता है   
विंड ब्रेक (wind break) : तेज हवाओं की रफ़्तार को कम करने के लिए जब खेत के चारो और अथवा हवा आने वाली तरफ जब सीमेंट (cement / concrete) की दीवार बनायी जाती है तो उसे विंड ब्रेक कहते है अतः यह निर्जीव संरचना होती है
शेल्टर ब्रेक / शेल्टर बेल्ट (shelter break/shelter belt) : तेज हवाओं की रफ़्तार को कम करने के लिए जब खेत के चारो ओर अथवा हवा आने वाली तरफ जब पेड़ों का (सजीव दीवार) इस्तेमाल किया जाता है तो उसे शेल्टर बेल्ट या शेल्टर ब्रेक कहा जाता है
तेज हवाओं के नियंत्रण में दो शब्दों का बार बार इस्तेमाल होता है वो हैं विंड वर्ड साइड (wind ward) और ली वर्ड (Lee ward) साइड जिस ओर से हवा का प्रवाह आता है उसे विंड वर्ड साइड कहा जाता है तथा हवा आने की उलटी दिशा वाली साइड को ली वर्ड साइड कहा जाता है
शेल्टर बेल्ट बनाने के कई मॉडल होते है जिसमे सामान्यतया हवा आने की दिशा में बड़े पेड़ों को लाइन से लगाया जाता है पर अन्य मॉडल में हवा वाली दिशा में (खेत से बाहर की ओर) छोटे पेड़ (shrubs) लगाये जाते हैं फिर छोटी ऊंचाई वाले वृछ और खेत की साइड में सबसे ऊंचाई वाले वृछ लगाये जाते हैं

शेल्टर या विंड ब्रेक्स बनाने से हवा की रफ़्तार खेत की ओर (lee ward) 60 – 80%  कम हो जाती हैवृछ या दीवार की ऊंचाई से विभिन्न दूरी पर हवा की रफ़्तार भिन्न भिन्न होती है हर 300 मीटर पर विंड ब्रेक या शेल्टर बेल्ट्स की दूसरी लाइन बनानी चाहिए

Friday, 9 June 2017

वानकी (Forestry) और कृषि वानकी (Agro forestry)

          Forestry and Agro forestry


वानकी का अर्थ है  वनों को विकसित करना जिनमे वन के लिए पौधों का उत्तपादन, उनका संरछण और उनके उत्त्पदों का उपयोग [शामिल होता है। वानकी का मुख्य उद्देश पर्यावरण का संतुलन बनाना है परन्तु वानकी एक बहुउद्देशीय कार्य है। 
कृषि वानकी, वानकी (Forestry) का वह अंग है जिसमे फसल उत्त्पादन अथवा कृषि के साथ साथ वृक्षारोपण को सम्लित किया जाता है वानकी के अंतर्गत केवल वृक्षारोपण किया जाता है और वन को संरछित किया जाता है तथा वनों द्वारा उत्त्पन्न विभिन्न प्रकार के उत्तपादों का उपयोग किया जाता है। वानकी के अंतर्गत केवल वनों का विकास ही उद्देश होता है जहाँ बड़ी भूमि पर वृक्षारोपण द्वारा बड़ी मात्रा में वन लगाये जाते है। 
कृषि वानकी में वृछ लगाने का उद्देश खेती में विविधता पैदा करना है जिससे कृषि भूमि को ज्यादा से ज्यादा उपयोग में लाया जा सके, कृषि योग्य भूमि का पूरा सदुपयोग किया जा सके और एक निश्चित समय बाद उससे किसानो को आमदनी भी प्राप्त हो सके

कृषि वानकी के अनेक लाभ है जिसमे कुछ नीचे दिए गए हैं:
१. खेतों की खाली जमीन का पूर्ण इस्तेमाल किया जा सकता है जैसे मेढ़ों पर वृक्षारोपण करने से कृषि योग्य भूमि का ज्यादा से ज्यादा उपयोग हो जाता है
२. गहरी जड़ों के पेड़ उगाने से जमीन की गहराई से पोषक तत्व उपर आते हैं इससे मिटटी में पोषकतत्वों का आदान प्रदान (rotation) होता रहता है
३. वातावरण भी शुद्ध रहता है
४. पेड़ों के तैयार होने पर अच्छी खासी अतरिक्त आमदनी हो जाती है
५. घर के इस्तेमाल के लिए इमारती लकड़ी उपलब्ध होती है
६. पेड़ों की गिरने वाली पत्तियां या तथा पेड़ों के अन्य भाग को सड़ाकर खेती के लिए बेहतर खाद तैयार की जा सकती है

वानकी का वर्गीकरण (Classification of Forestry) :

वानकी के विभिन्न उद्देश्य के आधार पर निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया गया है -
१. संरछण वानकी (Conservation Forestry) : यहाँ वृक्षारोपण का प्रमुख उद्देश्य भूमि को छरण (erosion) से बचाना, जमीन में जल के स्तर को बढ़ाना इत्यादि
२. व्यवसायिक वानकी (Commercial forestry) : यहाँ वृक्षारोपण का प्रमुख उद्देश्य आमदनी प्राप्त करना होता है
३. सामाजिक वानकी (Social Forestry) :  यहाँ वन लगाने का प्रमुख उद्देश्य समाज के लिए पौधों को लगाना उदाहरण के तौर पर सार्वजनिक जगहों पर इस प्रकार के पेड़ पौधे लगाना जिससे आम नागरिकों को जलने के लिए ईधन के रूप में पेड़ों की शाखाएं, पत्तियां इत्यादि मिल सके
 ४. कृषि वानकी (Agro Forestry): यहाँ वृक्षारोपण का प्रमुख उद्देश्य कृषि योग्य भूमि का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करके उससे लाभ अर्जित करना

कृषि वानकी में उपयोग करने वाले पौधों की निम्न खासियत होनी चाहिए :
१. सीधा तना होना चाहिए
२. गहरी जडें होनी चाहिए
३. शाखाएं कम फैलने वाली होनी चाहिए
४. वृक्षारोपण में ऐसे पेड़ों का चयन करना चाहिए जिनकी कीमत बाजार में अच्छी मिले

उत्तर प्रदेश में कृषि वानकी में उपयोग करने के लिये प्रमुख रूप से निम्न पौधों का चयन किया जा सकता है : सागौन, चन्दन, शीशम, साखू, पोपुलर, आम, नीम, जामुन, बबूल, बांस इत्यादि

कुछ पौधों की व्यावसायिक उम्र (Commercial age of forestry trees):


व्यवसायिक उम्र वह मानी जाती है जिस उम्र पर कोई वन का पेड़  (forest tree) मुनाफा देने की स्थिति में पहुँच जाता है
शीशम की व्यवसायिक उम्र पचास साल (50 years)
सागौन की तीस साल (30 years)
साखू की पचास साल (50 years)          

मध्य प्रदेश का किसान आन्दोलन


आज से पहले भी अनेक बार किसानो की फसलों के उचित मूल्य नहीं मिले पर इस प्रकार का हिंसक प्रदर्शन किसानो की तरफ से नहीं किया गया। दर असल भारत की किसान बिरादरी हिंसक नहीं है। जब उसके फसल का उचित मूल्य नहीं मिलता है तब वह दुखी होता है अपना दुखड़ा रोता है फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ता और विभिन्न प्रकार की फसल पर जोर आजमाइश करता है आज कई फसलों के मूल्य बाजार में बहुत अच्छे मिल रहे है, लेकिन हर बार किसी भी फसल के दाम कम नहीं मिलते फिर भी किसी फसल की अत्यधिक उत्त्पदाकता और उनके भण्डारण की उचित व्यवस्था के आभाव में किसान को सस्ते में अपना सामान बाजर में बेचना पड़ता है यह साश्वत सत्य है परन्तु इसके लिए सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण किया जाता है जो की इस प्रकार की परिस्थिति से निपटने का एक बेहतर विकल्प होता है मैं पिछले दस वर्षों से पंजाब और हरियाणा के फसलों और मंडियों की स्थिति जानता हूँ वहां पर किसी भी फसल के उत्पाद को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर किसान नहीं बेचता न ही किसी व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर किसान के किसी भी उत्पाद को खरीदता है जब न्यूनतम समर्थन मूल्य से फसलों के मूल्य अधिक प्राप्त होते हैं तब किसान प्रसन्न रहता है
 पर वहीँ उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहाँ के किसानो को योगी सरकार से पहले तक न्यूनतम समर्थन मूल्य की जानकारी ही नहीं होती थी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो मंडी का नेटवर्क ठीक है और किसान मंडी में अपने उत्पाद ले भी जाता है परन्तु पूर्वी उत्तर प्रदेश के ज्यादातर भागों में तो व्यपारी किसान के घर से आकर अनाज खरीद ले जाते है वो जो भी मूल्य देते हैं किसान अपनी फसल को उन्ही व्यापारियों को बेच देता था इसकी मुख्य वजह थी कि यहाँ किसानो के पास मंडी की सुविधायें नहीं हैं और सरकारी खरीद केंद्र कभी खुलते ही नहीं थे और यदि कोई किसान सरकारी खरेद केद्र वाले कर्मचारियों को घूस का लालच देकर अपने कृषि उत्त्पद को बेंच भी देता था तो उसका भी पैसा किसानो को देर में मिलता था
यदि किसानों के फसल का उचित मूल्य दिलवाना है तो फिर किसनों के पैदावार को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदना पड़ेगा यह कार्य उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने सरकार में आने के एक महीने के भीतर पूर्ण सफलता के साथ करके दिखाया। आज उत्तर प्रदेश में किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिए चिंता करने की आवश्यकता नहीं है सरकारी क्रय केंद्र दूर दराज के इलाकों तक में पूरे समय तकखुले और सभी इच्छुक किसानो के उत्त्पाद (गेहूं) की खरीद तो सुनिश्चित हुई ही साथ में किसानो के खाते में पैसा भी तीन से पांच दिनों में भुगतान भी सरकार द्वारा कर दिया गया इस नयी व्यवस्था से उत्तर प्रदेश के किसान बेहद खुश है। यदि इसी प्रकार की व्यवस्था अन्य राज भी करने लगें तो फिर किसान आन्दोलन की नौबत नहीं आने पायेगी। 
मध्य प्रदेश के किसान आन्दोलन का सबसे प्रमुख कारण राजनितिक हस्तछेप है। कोई भी किसान अपना गुस्सा प्रगट करने के लिए छोटे मोटे आन्दोलन तो कर सकता है जैसे किसानो ने अपना कृषि उत्पाद सड़कों पर बिखेरा। पर किसान कभी भी हिंसक आन्दोलन नहीं करता जो असली किसान है वो केवल कृषि पर ध्यान केन्द्रित करता है यदि किस फसल से नुकसान होता चला जाता है तो फिर वह दुसरे रास्ते तलासता है जैसे कोई नयी/ अन्य दूसरी फसल की खेती करना, पशुपाल करना, सरकार द्वारा प्रोत्त्साहित की जाने वाली अन्य योजनाओं का लाभ उठाना इत्यादि पर कभी हिंसक प्रदर्शन नहीं करता
 किसान का हिंसक प्रदर्शन केवल किसानो के तथाकथित शुभचिंतक नेता अपना वोट बैंक की राजनीति और निजी स्वार्थ के लिए करवाते हैं उसमे शामिल लोग कहने को तो किसान होते हैं पर स्वयं एक जिम्मेदार शायद ही हों। उनका मकसद कुछ दूसरा होता है वो किसानो की राजनीति करके स्वयं की राजनीति चमकाना चाहते हैं


मध्य प्रदेश के किसान आन्दोलन को कोई भी व्यक्ति साफ़ तौर पर राजनीति से प्रेरित समझ सकता है किसानो ने दूध को भी सड़कों पर फेंका आखिर यह कौन मान सकता है कि आज दूध के दाम कम है और किसान दूध उत्त्पादन में नुक्सान उठा रहा है ?
यदि तथाकथित किसान नेता इतने ही किसानो के शुभ चिन्तक होते तो वह किसानो को उनके उत्त्पादों का बेहतर मूल्य दिलवाने के लिए e NAAM जैसे पोर्टल के इस्तेमाल का लिए प्रोत्साहित करते और कृषि उत्पाद की न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए मुख्य मंत्री और प्रधनमंत्री से मुलकात करके किसानो के हितों की रछा  के लिए विमर्श करते। यह बात कतई स्वीकार नहीं की जा सकती कि यदि कोई मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री, कृषि मंत्री और जरूरत पड़ने पर प्रधानमत्री से मिलता तो ये लोग इन किसान नेताओं की बातों को नजरअंदाज करते। परन्तु कुछ किसान नेताओं के माध्यम से कई अन्य नेताओं ने और खुद कई किसान नेताओं ने भी जानबूझकर अपने निजी राजनितिक लाभ के लिए इस आन्दोलन को हवा दी और आज यह स्थिति उत्त्पन्न हुई। इस आन्दोलन ने कई किसानो की जान ली इसके जिम्मेदार और इस घोर पाप के भागी भी किसानो को भड़काने वाले तत्व ही है


सरकार की विफलता यह रही कि वह उत्तर प्रदेश की तर्ज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्त्पादों की खरीद नहीं कर सकी इसके लिए उन्हें क्रय केन्द्रों की शक्ति से निगरानी करनी चाहिए थी इसलिए भविष्य के लिए भी यह आवश्यक है कि किसानो की फसलों की खरीद का न्यूनतम समर्थन मूल्य पर क्रय सुनिश्चित हो और क्रय के पश्चात् सरकार खरीदी गयी फसलों के उत्पाद का इमानदारी से संरछण करे ताकि भण्डारण में फसल उत्त्पादों का नुक्सान न हो साथ ही शरारती तत्वों और तथाकथित बदनीयती किसान नेताओं और इस प्रकार के अन्य नेताओं के खिलाफ भी सख्त कार्यवाही की जाय जिससे उनके द्वारा जनजीवन अस्त व्यस्त करने की उनकी मनसा कभी कामयाब न हो सके

Friday, 19 May 2017

बैंक क्यूँ करते हैं आपके ऋण का बीमा @ किसान क्रेडिट कार्ड


बैंकों के अनुसार, किसान क्रेडिट कार्ड (K.C.C.) के माध्यम से जो ऋण किसान को दिया जाता है वह पैसा बैंक का होता है न कि किसान का। अतः बैंक अपने पैसे को किसी आपदा अथवा दुर्घटना की स्थिति में सुरछित करने के लिए ऋण का बीमा करता है। चुकि बैंक को अपना पैसा सुरछित रखने का अधिकार और यह उसका कर्तव्य भी है इस कारण वह यह काम करता है। लगभग सभी ऋण प्राप्त करने वाले किसान आय के लिए केवल फसल पर निर्भर रहते है। यदि किन्ही कारण वश उनकी फसल ख़राब हो गयी तो किसान बैंक से लिया हुआ ऋण वापस नहीं कर पायेगा। ऐसी स्थिति में बैंक के पैसा डूबने की सम्भावना अभूत अधिक रहती है अतः बैंक अपना पैसा सुरछित रखने के उद्देश्य से किसान को दिए गए ऋण का बीमा कर देते हैं।    
  

Thursday, 27 April 2017

Towards self-sufficiency in Urea Production

 From long time this is a matter of discussion that if government keeps urea production and import below the demand then farmers will use urea under a limit. But why no one can understand the complication that keeping less stock is not solution to use of urea by farmers. Because those farmers who have money will certainly buy the urea as much as he requires. Keeping low stocks as per requirement will leads to BLACK marketing. Till 2014 there were huge urea crises prevailed in market, and it was always sold above M.R.P. as black marketing.
To curb the excess use of urea by farmers government can withdraw the Urea subsidy. If this happens then prices of urea will shoot up. Then this can do some role.  Increase in prices of a commodity or a product may only limit its use.
 But here one think is important to note that farmers are not using urea as more as government predicts. The farmers are cautious enough to see the impact of high urea doses. Almost all the farmers are aware not to apply urea in excess quantity.  But in case of urea, governments were keeps on focusing to make lower the stocks of urea in country. but this situation was generated complication in farmers community as trading and selling happened urea and also other fertilizers as Black marketing.
 The previous governments were also keeps cap on the urea production for urea manufacturers plants.  This shows that how governments were not interested in solution of a problem. Unfortunately they keep on maintaining the situation as it is.  
So till 2014 the urea crisis was prevalent through the country. In Modi government, the manufacturers gets rights to produce urea as much as they can.
 Before 2014 only 30 % of urea was allowed for neem coating. This was also a case that governments were deliberately creating the problems. But in the current government they directed companies to make 100% neem coating of all urea.
 Before 100% neem coating the urea was used in the different factories for non agriculture purpose. Urea has different grade for the industrial and agricultural purpose. The urea for the industrial purpose is not subsidized so its cost is more than double than urea for the agriculture purpose. So misuse of the subsidy was also a part and agriculture grade urea was used in considerable amount by other industries such as ply wood manufactures and many more. Urea without neem coating was also used by the synthetic milk traders, or we can say it was used for adulteration.  By neem coating the urea for the agriculture could not be used in industries and also not by milk mans.

Till date urea is being imported along with domestic production with some restrictions. Now in the country several urea plants are getting revived as in Gorakhpur, Uttar Pradesh. Government has decided not to import urea from other countries within five years. Government wants to produce sufficient urea from domestic manufacturers for all its domestic demand. But here government has to give assurance to the manufactures not to delay subsidies because due to subsidy issue private players are not interested to invest in urea manufacturing. Due to subsidies and low profits Tata Chemical Ltd has sold out its plant. To establish a new urea plant it takes minimum three year to become operational. So if government wants to achieve sufficient domestic urea production within five years then they have to give assurance to the corporate players for Gas and easy subsidy claims. Any delay in making these policies, the task of becoming self sufficient in urea production within five years is very difficult.

cross colu same

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